आचार्य श्रीराम शर्मा >> ब्रह्मवर्चस शोध संस्थान प्रयोजन और प्रयास ब्रह्मवर्चस शोध संस्थान प्रयोजन और प्रयासश्रीराम शर्मा आचार्य
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प्रस्तुत है ब्रह्मवर्चस् का प्रयोजन और प्रयास
१- अध्यात्म और विज्ञान की सहकारिता
कोई समय था जब शास्त्र उल्लेख और आप्त वचनों को प्रामाणिक मान लिया जाता था।
श्रद्धालुजन उसमें सन्देह-विवाद की आवश्यकता नहीं समझते थे। कहीं किसी तथ्य
को समझने में कठिनाई होती थी, तो जिज्ञासा भाव से उसका समाधान पूछ लिया जाता
था-बात समाप्त हो जाती थी।
आज वातावरण बदल गया है। विज्ञान ने प्रत्यक्षवाद को बहुत बढ़ावा दिया है।
संकीर्ण अहमन्यता के दौर भी जूड़ी-बुखार की तरह हर किसी पर लदे हैं। पुरातन
मूल्यों, प्रतिपादनों और निर्धारणों पर अविश्वास किया और उपहास उड़ाया जाता
है। ऐसी दशा में लगता है कि मानव जाति को उत्कृष्टता एवं आदर्शवादिता का पाठ
नये सिरे से पढ़ाना पड़ेगा। विकृत बुद्धिवाद ने उन आधारों को भी
उलट-पुलट कर रख दिया है, जिन्हें मानवी गरिमा का प्राण एवं मेरुदण्ड
कहा जाता रहा है। क्यों, कैसे? की जिज्ञासा को तो इससे मान्यता मिलती है पर
उसने सहज विश्वास को भी हिला दिया है।
आस्तिकता, आध्यात्मिकता और धार्मिकता, यह ऐसे सत्य हैं, जो मनुष्य के कारण,
सूक्ष्म और स्थूल शरीर को सुसंयत रखने, शान्ति प्रदान करने तथा प्रगति पथ पर
अग्रसर करने के लिए नितान्त अनिवार्य हैं, किन्तु कठिनाई यही है कि इन सनातन
सत्यों को भी, शंकाओं के घेरे में कैद कर दिया गया है। अनास्था के माहौल में
मात्र प्रत्यक्ष ही सब कुछ रह गया है। इन दिनों उभरते आवेशों में
प्रत्यक्षवाद और विज्ञान की कसौटी पर ऐसा सब कुछ नकार दिया गया है, जो
श्रद्धा पर अवलंबित था और उत्कृष्टता के साथ अविच्छित रूप से जुड़ा हुआ था।
ऐसी विषम स्थिति में ''श्रद्धा युग'' को वापिस लौटाना तो कठिन प्रतीत होता
है, सरल और सम्भव यही रह जाता है कि विज्ञान और प्रत्यक्षवाद के आधार को
मान्यता दी जाए। उसे अपनाते हुए भी, प्रबुद्ध वर्ग को उन सनातन सत्यों
को स्वीकार करने के लिए मजबूर किया जाए। उत्कृष्टता शास्त्र-सम्मत ही
नहीं, भौतिक विज्ञान की कसौटी पर कसे जाने के लिए भी पूरी तरह तैयार
है। साँच को आँच कहाँ?
शान्तिकुञ्ज के ब्रह्मवर्चस शोध संस्थान ने एक की लक्ष्य हाथ में लिया है कि
बुद्धिवाद की-विज्ञान की कसौटियों पर कसकर, आध्यात्मिक मान्यताओं की गरिमा
स्वीकारने के लिए प्रत्यक्षवाद को सहमत किया जाए।
कार्य बहुत बड़ा और कठिन है। इसके लिए ज्ञान-विज्ञान की अनेकानेक दिशाधारा को
हाथ में लेना होगा। अध्यात्म का विज्ञान के साथ और विज्ञान का अध्यात्म के
साथ इस प्रकार ताल-मेल बिठाने के लिए पथ प्रशस्त किया जाएगा कि दोनों ही अपने
को सत्य-शोधक स्वीकार करें। अपनी मान्यताओं को दूसरे पक्ष की कसौटी पर कसकर
देखें एवं उन्हें दोनों आधार पर सही सिद्ध करने की चेष्टा करें। यदि
पूर्वाग्रह न रहे, अपना कथन सत्य एवं दूसरे का झूठा ठहराने के लिए दुराग्रह न
रखें, तो आज के परिवेश में अध्यात्म और विज्ञान का समन्वय सम्भव है। यदि ऐसा
बन पड़े तो मनुष्य के सामने इन दिनों उपस्थित एक बड़ी उलझन का निराकरण होगा।
दो विपरीत दिशाओं में खींची जाने वाली बुद्धि, असमंजस की अनावश्यक खींचतान से
बचकर एक सीधी, सुनिश्चित और सर्वमान्य दिशाधारा पर चल सकने में समर्थ होगी।
विज्ञान ने आत्मा की-परमात्मा की, कर्मफल की सत्ता को नकारा है। यदि उसकी यह
बात मान ली जाए, तो नैतिकता-सामाजिकता का कोई आधार शेष नहीं रह जाता। स्वार्थ
सिद्धि ही सर्वोपरि बुद्धिमता और सफलता ठहरती है। ऐसी दशा में दूसरों
की सुविधा या कठिनाई पर विचार करने की भी कोई आवश्यकता नहीं रह जाती।
यदि यही प्रचलन चल पड़े, तो मनुष्य अधिक बुद्धिमान साधन-सम्पन्न होने के
साथ, अनाचार की चरम सीमा तक पहुँच सकता है। ऐसी स्थिति में इस दुनिया
में सर्वत्र अराजकता एवं उद्धत अनाचार का ही बोल-बाला होकर रहेगा।
प्रस्तुत सम्भावना पर विचार करते हुए युगमनीषियों ने यह प्रयत्न किया है कि
अध्यात्मवादी उत्कृष्टता को विज्ञान की कसौटियों पर कसने और उन्हें खरा सिद्ध
करने का प्रयत्न किया जाए। तथ्यों को देखते हुए यह उद्देश्य पूरा हो सकना
सम्भव भी दिखाई पड़ता है। इसके लिए अध्यात्म तत्वज्ञान को, विज्ञान की
प्रयोगशाला में कसना आरम्भ कर दिया गया है। परिणाम अच्छे ही निकल रहे हैं।
तर्क, तथ्य और प्रमाणों का समुच्चय भी प्रत्यक्षवाद का अंग होने के कारण,
वैज्ञानिक प्रयोगों में भी सम्मिलित किया जाता है।
पिछले दिनों परामनोविज्ञान क्षेत्र में कई प्रयोग-परीक्षण हुए हैं। उस आधार
पर अतीन्द्रिय क्षमताओं के 'बीज' मानवीय चेतना में विद्यमान पाये गए हैं।
दूरदर्शन, दूरश्रवण, विचार-संचालन, भविष्य-कथन, स्वप्नाभास,
मरणोत्तर-जीवन, पुनर्जन्म आदि विषयों पर सफल प्रयोग हुए हैं। मानवीय विद्युत
का हस्तान्तरण, मैस्मरिज्म, हिप्नोटिज्म, साइकिक हीलिंग जैसी विज्ञान की
धाराएँ परिपूर्ण प्रामाणिकता के साथ उभर कर आयी हैं।
इन उपलब्धियों के आधार पर यह सोचना ही पड़ता है कि चेतना मात्र शरीर का ही एक
उफान-उत्पादन नहीं है, वरन् उसकी स्वतंत्र और व्यापक सत्ता का भी अस्तित्व
है। मन: शास्त्र रहस्यमय परतें दिन-दिन अधिक प्रामाणिकता के साथ उभर
रही हैं। विचार-शक्ति का, शरीर-सत्ता पर कितना अधिक प्रभाव है, इसके प्रमाण
पुरातन खोजों और नवीनतम शोधों के आधार पर अधिकाधिक प्रकट-प्रत्यक्ष होते जा
रहे हैं। ब्रह्माण्ड की शक्तियाँ पिण्ड में सन्निहित पायी गयी हैं।
सौरमण्डल का गतिचक्र पूरी तरह मानवी काया में विद्यमान जीवकोषों एवं प्रकृति
के लघुतम घटक 'परमाणु' में यथावत् काम करते देखा गया है। मानव-मस्तिष्क
की सम्भावनाओं का आँकलन करने वालों का कथन है इस क्षेत्र की मात्र सात
प्रतिशत गतिविधियाँ ही प्रकाश में आती हैं। यदि 93 प्रतिशत भी जानी और प्रयोग
में लायी जा सकें, तो मानवीय क्षमता की असीम सम्भावनाओं का भाण्डागार
हाथ लग सकता है।
जिस प्रकार प्रकृति के रहस्यों को खोजते-खोजते मनुष्य लेसर किरणों और
अन्तरिक्ष के आधिपत्य की स्थिति तक जा पहुँचा है, उसी प्रकार यह विश्वास भी
सुदृढ़, सुनिश्चित होता जाता है कि चेतना की इस विश्व ब्रह्माण्ड में
स्वतंत्र सत्ता है और प्रकृति के हर क्षेत्र पर उसका सशक्त आधिपत्य है। इस
प्रतिपादन ने अध्यात्म तत्वज्ञान को एक बड़ी सीमा तक मान्यता दी है। वह दिन
दूर नहीं, जब आत्मा और परमात्मा को भी प्रकृति के आवरणों में आँख मिचौली करते
हुए ढूँढ़ा जा सकेगा।
मनुष्य का निजी व्यक्तित्व, आदर्शवादी सिद्धान्तों को अपनाकर ही देवोपम
स्थिति में पहुँचने योग्य विकसित होता है। समाज में न्यायोचित व्यवस्था बन
पड़ना भी औचित्य अपनाये जाने पर ही निर्भर हैं। यह अध्यात्म का प्राण-सार
तत्त्व कहा जा सकता है। इसके न रहने पर यहाँ जंगल का कानून चलने लगेगा। बड़ी
मछली छोटी को निगलने लगेगी। शोषण, अपहराण एक मान्य नियम बन जायेगा। ऐसी
स्थिति में दुनिया, डरते-डराते रहने वाले प्रेत-पिशाचों की श्मशान जैसी ही
बनी रह जायगी। वह स्थिति न आने पाए, इसलिए हर समझदार व्यक्ति को मान्यताएँ
सुधारने और व्यवहार को न्यायनिष्ठ बनाए रखने के लिए प्रयत्नशील रहना चाहिए।
यह दायित्व तत्त्वदर्शियों और वैज्ञानिकों पर विशेष रूप से आता है।
अध्यात्म और विज्ञान का समन्वय इसी महान् प्रयोजन की पूर्ति करता है। इस दिशा
में विभिन्न क्षेत्रों में भिन्न-भिन्न स्तरों पर प्रयास आरंभ हुए हैं। उनमें
से एक प्रयास शान्तिकुञ्ज के ब्रह्मवर्चस शोध संस्थान का भी है। पिछले कई
वर्षों में उसने एक-एक कदम बढ़ाते हुए उपयुक्त दिशाधारा का निर्धारण
किया है एवं आवश्यक उपकरण जुटाये हैं। प्रत्यक्षवाद के बुद्धिवादी पक्ष
को अध्यात्म का पक्षधर बनाने के लिए प्रयोगशाला के अतिरिक्त एक विशाल
पुस्तकालय की आवश्यकता थी। इस हेतु संसार के कोने-कोने से ऐसा दुर्लभ साहित्य
एकत्र किया गया है, जो अभीष्ट उद्देश्य की पूर्ति में सहायक सिद्ध हो
सके। ब्रह्मवर्चस में ऐसी साधन सम्पन्न प्रयोगशाला भी खड़ी की गयी है
ताकि पदार्थ के स्थूल स्वरूप का ही नहीं, चेतना-क्षेत्र की सूक्ष्म
गतिविधियों का भी आँकलन किया जा सके।
प्रथम तल गायत्री शक्तिपीठ-
अध्यात्म की फिलॉसफी और साधना विज्ञान का समन्वय द्रष्टा ऋषियों ने
महाप्रज्ञा गायत्री के रूप में किया है वे विवेक की अधिष्ठात्री देवी
हैं। अथर्ववेद में तो उन्हें वेदमाता नाम देते हुए पूरी स्तुति गान को
प्रस्तुत देखा जा सकता है जो विचारणा को श्रेष्ठतापरक मोड़ देने के लिए
प्रेरित करती हैं। गायत्री मंत्र के चौबीस अक्षरों में से प्रत्येक में जो
दक्षिणमार्गी, वाममार्गी शक्तिधाराएँ सन्निहित हैं, उनका कलात्मक
चित्रण ऋषियों ने अपनी गहन अनुभूतियों के आधार पर किया है। इन्हीं
शक्ति धाराओं को प्रतीक प्रतिमाओं के रूप में यहाँ स्थापित किया गया
है। ये सूत्र संकेत हैं, जो बताते हैं कि प्रत्येक में ज्ञान और विज्ञान की,
योग और तप की विभिन्न विभूतियों का समावेश है। इन प्रतीकों के माध्यम से
अन्त: क्षेत्र की श्रद्धा को दिशा देने में साधक को सुविधा रहती है।
महाप्रज्ञा गायत्री आद्यशक्ति के रूप में दिव्य चेतन शक्तियों का अनादि उद्गम
केन्द्र है। वह वेदमाता अर्थात् सद्ज्ञान की अधिष्ठात्री देवी, देवमाता है
अर्थात् सद्भावों की प्रेरणा पुंज, विश्वमाता है अर्थात् 'वसुधैव कुटुम्बकम्'
के दर्शन को हृदयंगम कराने वाली सार्वभौम शक्ति। उसे ब्राह्मी के रूप में
सृजनात्मक सत्प्रवृत्तियों के प्रमुख बीजों को उगाने वाली महाशक्ति, वैष्णवी
के रूप में सृष्टि की सुव्यवस्था बनाने वाली शक्ति-सामर्थ्य, शांभवी के रूप
में सृष्टि संतुलन हेतु अवतरित प्रलयंकर शक्ति के रूप में भी समझा जा सकता
है।
सभी शक्ति धाराएँ एक ही अनादि स्रोत की विभिन्न शाखाएँ हैं, जो भिन्न-भिन्न
रूपों में व्यक्ति के चिन्तन, चरित्र और व्यवहार के समूचे चेतन परिवार का
परिष्कार कर उसका काया-कल्प कर दिखाती हैं। गायत्री सार्वभौम है। वह किसी
देश, धर्म जाति या लिंग की बपौती नहीं। वर्षा एवं धरती की तरह उसका उपयोग
करने की हर किसी को पूरी छूट है। गायत्री का तत्त्वदर्शन संसार का सबसे छोटा
किन्तु सारगर्भित धर्मशास्त्र है। उसके साधना विधान में ऋद्धि-सिद्धियों के
भण्डार छिपे पड़े हैं। गायत्री की शब्द-ब्रह्म, नाद-ब्रह्म रूपी साधना के
लाभों को अलंकारिक रूप में अमृत, पारस, कल्पवृक्ष कामधेनु ब्रह्मास्त्र जैसे
विभिन्न रूपों में समझाया गया है। तात्पर्य यही है कि इस महाप्रज्ञा का आश्रय
लेने वाला भवबंधनों के त्रास के छूट जाता है एवं दिव्य विभूतियाँ
प्राप्त करने योग्य पात्रता अर्जित कर लेता है।
गायत्री का वाहन हंस है अर्थात् विवेक एवं औचित्य का वरण करने वाला। उपकरण
है-पुस्तक एवं कमण्डलु। पुस्तक को स्वाध्याय, ज्ञान एवं कमण्डलु को पात्रता
धारण करने की क्षमता का प्रतीक माना गया है। नारी शक्ति की वरिष्ठता एवं
मानवी गरिमा के प्रति श्रद्धान्वित रहने की दृष्टि से गायत्री को नारी रूप
प्रदान किया गया है।
चौबीस शक्तियों के प्रतीक, वाहन एवं आयुधों के अतिरिक्त तंत्र विज्ञान के
अनुसार प्रत्येक का एक शक्तियंत्र, साधना में संपुट देने हेतु बीजाक्षर, एक
देवता एवं एक ऋषि है। देवी का अर्थ है साधनाशक्ति, देवता का अर्थ है
तत्वदर्शन एवं ऋषि का अर्थ है साधक का स्तर। ये तीनों मिलकर एक परिपूर्ण
अध्यात्म प्रवाह
बनते हैं। यह व्याख्या दक्षिण मार्ग निगम परम्परा के अनुसार है। दूसरा
वाममार्गी आगम मार्ग भी है, जिसे शुक्राचार्य प्रतिपादित तंत्र या
दैत्य परम्परा कहा जाता है। इसके साथ गायत्री महामंत्र का एक-एक अक्षर एक-एक
बीज, एक-एक मंत्र और ऊर्जा का भँवर केन्द्र शब्द स्फोट है। यह साधक के भौतिक
कायकलेवर में काम करने वाली ऊर्जा है।
प्रस्तुत शक्तिपीठ में गायत्री के चौबीस अक्षरों के प्रतीक शक्ति धाराओं में
से प्रत्येक के दक्षिणमार्गी एवं वाममार्गी, अध्यात्म प्रधान एवं भौतिक
प्रधान स्वरूप का चित्रांकन हर मूर्ति के साथ किया गया है। उन्हें देख-समझ कर
हर कोई यह जान सकता है कि वाक् ऊर्जा की अपरिमित सम्पदा से भरी पूरी गायत्री
महाशक्ति का आश्रय लेकर, इन बीज मंत्रों का सम्पुट लगाकर हर साधक अपने अन्दर
प्रसुप्त पड़ी क्षमताओं को जगाकर विभूतिवान् बन सकता है। साथ चलने वाले
मार्गदर्शक इस विज्ञान सम्मत गायत्री विद्या के दर्शन को व्यावहारिक रूप में
समझाते हैं ताकि यहाँ आने वाला, दर्शन करके जाने वाला मात्र चर्मचक्षु से ही
नहीं, अन्तर्चक्षुओं से भी यह बोध कर सके कि विश्व भर के सभी गायत्री
शक्तिपीठों के सर्वोच्च केन्द्र ब्रह्मवर्चस में आने पर वह कितना कृतार्थ हो
गया। अध्यात्म ज्ञान को बोधगम्य भाषा में समझकर वह न्यूनतम संकल्प गायत्री
उपासना को नित्य नैमित्तिक कार्य का अंग बनाने का संकल्प लेकर जाता है। इस
संवर्धन में अधिक जानने-समझने के लिए प्रचुर मात्रा में परम पूज्य गुरुदेव
द्वारा रचित आर्ष साहित्य उपलब्ध है, जिसमें गायत्री महाविद्या के गूढ़तम
सूत्रों को सरल रूप में समझाया गया है।
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